बाबू हो, बाबू हो, डोॅर लागे छै | अंगिका कविता | शम्भुनाथ मिस्त्री
Babu Ho,Babu Ho, Dor Lagai Chhai | Angika Kavita | Shambhunath Mistry
(संदर्भ : कोरोना काल (अंगिका))
पिपरा तोॅर नै छाहुर छै
हवा समैलोॅ माहुर छै
दीन्हें घूरै भूत बेताल
कीची दाँत बजावै गाल
सगरो रहता हाट-बजार
हेकरै चलती छै दमदार ;
आपुस सब्भै पोॅर लागे छै
बाबू हो, बाबू हो, डोॅर लागे छै l
जेॅकरा छूभेॅ लागतोॅ छूत
देही घुसतोॅ झुपरा भूत
दूरै सें लै दुआ-सलाम
घरैं रहोॅ मतु घूरोॅ गाम
बिरनी-छत्ता गाछ बिरीछ
रात अन्हरिया बाघिन रीछ ;
भरलोॅ धुआँ डहोॅर लागे छै
बाबू हो, बाबू हो, डोॅर लागे छै l
कथी केॅ डोॅर नुनू, कथी केॅ डोॅर
सब्भै आपनोॅ आपनोॅ घोॅर
सूनोॅ सूनोॅ हाट-बजार
कठिन काल सें छै लाचार
जबलेॅ रहभेॅ भीतर घोॅर
कथी केॅ डोॅर नुनू, कथी केॅ डोॅर ;
गाछें माहुर फोॅर लागे छै
बाबू हो बाबू हो, डोॅर लागे छै l
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